बजट 2022-23: ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती

पिछले 8 सालों से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार वादा करती आ रही है कि सबके साथ से सबका विकास होगा जिसका जश्न देश की आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ पर तीन सालों तक मनाया जाएगा। लेकिन 2022-23 का बजट पेश करते हुए सरकार ने इस वादे को दरकिनार कर दिया और विकास की पूरी जिम्मेदारी लोगों के सिर डालते हुए बताया कि ‘सबके प्रयास’ से 25 साल बाद देश अपनी 100वीं वर्षगांठ पर ‘अमृत काल’ मनाएगा। एक ऐसी सरकार के लिए जिसने भारत को विकास के सभी वैश्विक सूचकांकों में सबसे नीचे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, यह बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं है। सतत विकास रिपोर्ट (2021) रैंकिंग के अनुसार भारत 167 देशों में 120वें स्थान पर है; मानव विकास रिपोर्ट (2020) के अनुसार हम 131 (189 देशों में से) स्थान पर हैं, जो जन्म के समय जीवन प्रत्याशा, जीवन स्तर और शिक्षा के मानकों के आधार पर देशों की रैंकिंग करता है; और ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट (2021) में हम 156 देशों में 140वें पायदान पर हैं।

बजट – इस में हमारे लिए क्या है?

इस बजट में मात्र लफ्फाजी है, भाजपा सरकार इस उम्मीद में है कि हम धार्मिक राष्ट्रवाद के नशे में धुत होकर अतीत में किए गए वादे को भूल जाएंगे, यह नहीं देखेंगे कि वर्तमान में हमारी स्थिति क्या है और भविष्य की ‘संभावनाओं’ के सपनों में डूबे रहेंगे।

पूरा ‌‌विश्व और हमारा देश अभी भी महामारी से जूझ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 30 जनवरी 2022 तक हमारी मात्र 51% आबादी का ही पूरी तरह से टीकाकरण हो पाया है, लेकिन भाजपा के लिए महामारी अतीत की बात हो गई है। भाजपा अब हमें विश्वास दिलाना चाहती है कि अब हम एक संपन्न अर्थव्यवस्था हैं और इसलिए लोगों पर खर्च में कटौती करने का समय आ गया है। पहली कटौती सामाजिक सुरक्षा पर होने वाले खर्च पर हुई है। बजट 2022-23 में सरकार खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर होने वाले खर्च को 28% और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) पर खर्च को 26% तक कम करने की योजना में है। आंगनबाड़ियों और स्कूल के मध्याह्न भोजन पर खर्च अपरिवर्तित रहेगा, इसका मतलब है सरकार ने महंगाई, इन कार्यक्रमों में विस्तार या सुधार के विषय में सोचने की ज़हमत नहीं उठाई है। ग्रामीण विकास और कृषि पर होने वाले खर्च में भी असल मायनों में रोक ही है। हालाँकि, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सरकार अपनी भगवा नई शिक्षा नीति को लागू करने में सक्षम हो, शिक्षा बजट में मामूली वृद्धि की गई है।
सबसे आश्चर्यजनक बात है कि जब देश महामारी की तीसरी लहर के बीच में ही है भाजपा सरकार ने स्वास्थ्य सेवा पर अपने आवंटन में भारी कटौती की है – इसे 75,000 करोड़ रुपये से घटा कर 41,000 करोड़ रुपये कर दिया (यानि 45% की कटौती)। कोरोनावायरस वैक्सीन बजट को 39,000 करोड़ रुपये से घटाकर 5,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। लगभग आधी आबादी अभी भी पूर्ण टीकाकरण की प्रतीक्षा ही कर रही है, खासकर हमारे बच्चे अभी भी टीके के इंतज़ार में हैं, ऐसे में बजट में कटौती साफ़ संकेत देती है कि सरकार हमें और हमारे बच्चों को इस घातक बीमारी से बचाने के लिए तैयार नहीं है।

सरकार पैसे कैसे जुटाएगी?

महाभारत का हवाला देते हुए, बजट में कहा गया है कि करों (टैक्स) को इकट्ठा करके लोगों के कल्याण के लिए काम करना सरकार का धर्म है। इस पौराणिक बयानबाजी का इस्तेमाल करते हुए सरकार वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लागू करने का जश्न मना रही है, जो सब पर समान रूप से लागू है लेकिन असल में अमीरों की तुलना में मजदूर वर्ग और गरीबों की जेब में बड़ी सेंध लगाता है। यह सभी बुनियादी जरूरतों पर लगने वाला टैक्स है। यह टैक्स दवाओं पर भी लगता है और एक कप चाय पर भी। इसके अलावा, बजट मिश्रित पेट्रोल पर एक अतिरिक्त शुल्क लगाता है, जिससे मजदूर वर्ग के लिए सभी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो सकती है। लेकिन जब आय और कंपनियों पर टैक्स लगाने की बात आती है, तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करने के बाद कहा, “प्रधान मंत्री मोदी के निर्देश बहुत स्पष्ट थे – ‘कोई अतिरिक्त टैक्स नहीं’, जाहिर तौर अमीरों पर लगने वाले टैक्स।
भाजपा सरकार जानती है कि वह केवल गरीबों पर टैक्स लगा कर पर्याप्त पैसे नहीं उगाह सकती, इसलिए वह खर्च करने के लिए उधार लेने की योजना बना रही है। 2023 तक, सरकार की उधारी 2019 के अपने स्तर की दोगुनी हो जाएगी। सरकार द्वारा उधार लिए गए प्रत्येक 3 रुपये में से 1 रुपया छोटी बचत से आएगा। इसलिए गरीब और मेहनतकश लोग न केवल सामाजिक सुरक्षा पर कम खर्च का राजकोषीय अनुशासन वहन करेंगे, वे ज्यादा अप्रत्यक्ष टैक्स भी भरेंगे और उनकी खून-पसीने की कमाई में सेंध लगा कर भाजपा सरकार देश को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने का उपकार करेगी।

बेशक सरकारी खर्च को पूरा करने का दूसरा स्रोत निजीकरण और सार्वजनिक संपत्ति के ‘मुद्रीकरण’ से होने वाली आय से होगा। भाजपा ने निजी क्षेत्र को क्लांत करने में पिछली हर सरकार को पीछे छोड़ दिया है। जैसा कि हमने एयर इंडिया मामले में देखा, भाजपा सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम को कौड़ियों के मोल बेच देगी। पिछले वर्ष की तुलना में इस बजट में निजीकरण से होने वाली आय की अपेक्षा में हुई गिरावट इसका प्रमाण है।

सब कुछ राजा का, जो बचे वो राजा के घोड़ों की जागीर

भारत में निजी निवेश में 2016-17 से लगातार ही गिरावट आयी है, जब अर्थव्यवस्था ने मांग में तेज गिरावट का अनुभव किया, दूसरे शब्दों में, लोगों के खर्च में कमी आयी। नौकरियों और कमाई का यह संकट 8 नवंबर 2016 के नोटबंदी से शुरू हुआ था। तब से, अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट आई है, जिसमें मांग में होने वाली कमी के कारण निवेश में गिरावट होती है, जिसके परिणामस्वरूप रोजगार खत्म होता है और मजदूरी में गिरावट आती है। पर्याप्त योजना और तैयारी के बग़ैर जीएसटी बिल को लागू किए जाने के कारण मांग, निवेश और रोजगार में होने वाली घटोतरी के इस चक्र को और बल मिला। यदि निजी क्षेत्र पर टैक्स कम हो तो निवेश को बढ़ता है जैसी भ्रामक वैचारिक समझ के कारण भाजपा सरकार ने सितंबर 2019 में कंपनियों पर लगने वाले टैक्स को 8 से 10% तक कम कर दिया। इसके कारण राजस्व की भारी हानि हुई जिसने सरकार की खर्च करने की क्षमता को और सीमित कर दिया और सरकार को अधिक उधार लेने के लिए बाध्य कर दिया, साथ ही मांग को बढ़ावा देने वाले प्रमुख क्षेत्रों में होने वाले सरकारी खर्च को भी कम करना पड़ा। इस प्रकार, महामारी के आने से पहले ही, हमारा देश कम मांग, कम निवेश, कम रोजगार और कम मजदूरी के आर्थिक संकट में प्रवेश कर चुका था। महामारी के आघात ने स्थिति को पूरी तरह से अस्थिर बना दिया है।

बजट का उद्देश्य पूंजीगत व्यय पर पहले से कहीं अधिक धन खर्च करना है। पिछले वर्ष की तुलना में 2022-23 में इसे लगभग 35% बढ़ाया जाएगा और यह मुख्य रूप से अवसंरचना विकास के लिए होगा। सरकार का कहना है कि निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित करने के लिए यह आवश्यक है। यह भाजपा सरकार की स्वीकारोक्ति है कि पूंजीपति वर्ग, जिसकी सरकार ने लगभग आठ वर्षों से हर तरह से सेवा की है, हड़ताल पर है। जब कि भाजपा सरकार श्रमिकों को उनके अधिकारों के लिए हड़ताल करने से प्रतिबंधित करना चाहती है, उसके पास अमीर और बड़ी कंपनियों को मनाने की कोई शक्ति नहीं है जिससे वे उद्योग, विनिर्माण, बुनियादी सेवाओं और अवसंरचना में निवेश करने के खिलाफ अपनी हड़ताल वापस ले लें। इसलिए सरकार उन्हें सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से निवेश करने का लालच देती है ताकि अमीर गरीबों का ख़ून चूस कर और अमीर बन सकें।

बजट विवरण और आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 दोनों ही सरकार की ओर से नीतिगत दृष्टिकोण के दिवालियापन को दर्शाते हैं। सरकार का दावा है कि आने वाले साल में अर्थव्यवस्था 8-9% के बीच बढ़ेगी लेकिन अर्थव्यवस्था को वहां किस रास्ते पहुंचेगी इसका कोई जिक्र नहीं है। रोजगार उत्पन्न करने की दिशा में सरकारी खर्च को निर्देशित करने की कोई योजना नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप मांग में बढ़त आएगी और पूरी अर्थव्यवस्था का उत्थान होगा, भाजपा सरकार का मानना है कि केवल आंकड़ों और लफ्फाजी से देश को आगे ले जाया जा सकता है। भाजपा सरकार बताती है कि देश की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, लेकिन यह नहीं बताती है कि महंगाई में होती जा रही बढ़ोतरी के आलोक में विकास में असल मायनों में होने वाली वृद्धि ना के बराबर है।

भाजपा सरकार का यह भी दावा है कि हमारे पास अब तक का सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार है। जैसे-जैसे पेट्रोल की कीमत बढ़ रही है, जिसका हम बड़े पैमाने पर आयात करते हैं और साथ ही अन्य आयात भी बढ़ रहे हैं, भंडार, चाहे कितना भी बड़ा हो, लंबे समय तक नहीं रहेगा। सरकार का आत्मनिर्भरता का स्वांग और चीन के खिलाफ बुद्धिहीन राष्ट्रवादी बयानबाजी, मध्यम और छोटे उद्योगों के विनाश का कारक बन गई है, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र में नौकरियों, आजीविका और स्वदेशी विनिर्माण सामर्थ्य और क्षमताओं का सफाया हुआ है। पिछले तीन वर्षों में चीन से हमारे आयात में तीन गुना वृद्धि हुई है। हम आत्मानिर्भर होने से कोसों दूर जा चूके हैं।

आज के दौर में केवल तीन तात्कालिक चिंताएँ हो सकती हैं – कोरोनावायरस के नए वेरिएंट को फैलने से रोकना और उसके वर्तमान दुषप्रभाव को कम करना, नौकरियां पैदा करना और मुद्रास्फीति को स्वीकार्य स्तर पर बनाए रखना। वायरस पर बजट में केवल पिछली उपलब्धियों की बात की गई है, भविष्य के लिए कोई ठोस नीति नहीं है। नौकरियों के संकट से निपटने के लिए बजट में कोई स्पष्ट योजना या ढांचा नहीं है यह तब है जब की पूरे देश में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि देश के विकास के लिए 20 करोड़ नौकरियों की आवश्यकता है। इसके साथ ही महंगाई पर काबू पाने के ‌‌मुद्दे पर बजट पूरी तरह से खामोश है।

और अंत में, इस सब के तल में है हमारे देश में उभरी घोर असमानता का गहराता संकट। आज 100 सबसे अमीर भारतीयों के पास उतनी ही संपत्ति है, जितनी करीब 55 करोड़ लोगों या 45 प्रतिशत आबादी के पास है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश में 84 प्रतिशत परिवारों ने महामारी की शुरुआत के बाद से अपनी आय में गिरावट का सामना किया है। हमारे टैक्स की वर्तमान संरचना इसे और भी बदतर बना देगी जिससे मांग में और कमी आएगी, नौकरीयाँ कम होेंगीं, मजदूरी घटेगी और कीमतें बढ़ती जाएंगी। भाजपा सरकार सिर्फ हमारे देश की बदहाली बढ़ाने में योगदान दे रही है।

हम इससे कहीं बेहतर नीतियों के हकदार हैं। इसे पाने के लिए मजदूर वर्ग को भाजपा सरकार के खिलाफ अपना प्रतिरोध और मजबूत करना होगा।

गौतम मोदी
महासचिव