जब साथ मिल कर लड़ेंगे हम तभी संभव है प्राकृतिक संपदा का संरक्षण

न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव भूमि अधिकार आंदोलन के तत्वाधान में हो रहे संसद घेराव व तमाम संघर्षरत वन-जन श्रमजीवियों एवं परंपरागत रूप से वन-आश्रित लोगों की लड़ाई में उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा है और सरकार द्वारा वन अधिकार कानून, 2006 पर किए जा रहे सतत हमले की कड़ी निंदा करता है।

संसद घेराव का यह आह्वान सर्वोच्च न्यायालय में लंबित वाइल्डलाइफ फर्स्ट बनाम भारत सरकार के आलोक में किया गया है जिसकी अगली सुनवाई 26 नवम्बर 2019 को होनी है। 13 फरवरी 2019 को इस मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उन सभी 19,39,291 वन-आश्रित परिवारों को बेदखल करने के आदेश दिए थे जिनके दावे अनुसूचित जनजाति और अन्‍य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्‍यता) अधिनियम, 2006 के अंतर्गत गैरकानूनी रूप से खारिज कर दिए गए थे। इस फ़ैसले के बाद 16 प्रदेशों में 21 लाख से अधिक वनाश्रित समुदाय के लोगों पर अपने पारंपरिक पर्यावास से बेदखल कर दिए जाने का खतरा मंडराने लगा था। हालांकि व्यापक जन आक्रोश देखते हुए न्यायालय ने 26 फरवरी को इस फ़ैसले के अमल पर यह कह कर रोक लगा दी थी कि जिन लोगों के दावे खारिज हुए थे उन्हें वक़्त पर इसकी जानकारी नहीं दी गयी, नियमानुसार राज्य स्तरीय समिति की बैठकें नहीं हुईं और जिला प्रशासन द्वारा मानचित्र (मैप) और ज़मीन के पट्टे जारी करने में कोताही बरती गई।

वर्ष 2008 में वाइल्डलाइफ फर्स्ट और मुट्ठी भर सेवानिवृत्त वन विभाग अधिकारीयों द्वारा यह याचिका वन अधिकार कानून के संवैधानिकता को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी। कानून बनने के एक साल के भीतर ही इन लोगों ने उसे ख़त्म करने का काम शुरू कर दिया था। मुनाफाखोरों का पक्ष कमज़ोर होता देख न्यायपालिका स्वयं उनके बचाव में उतर आई और याचिका का रुख वन अधिकार कानून के अंतर्गत दायर किये गए दावों की तरफ मोड़ दिया गया। ऐसे समय में जब देश की न्याय व्यवस्था खुद सवालों के घेरे में हैं, एन.टी.यू.आई समझता है कि वन संपदा संरक्षण की यह लड़ाई हमें कचहरी से ले कर सड़कों तक पूरी ताक़त और एकजुटता से लड़नी होगी।

निजीकरण को जादू की छड़ी बताने वाली अमीरों की पक्षधर भाजपा सरकार असल में न तो विदेशी निवेश ला पायी है न ही निजी पूँजी को उत्पादन क्षेत्र में पैसा लगाने के लिए रिझा पाई है। आनन-फानन में लागू की गयी जन विरोधी नीतियों का अंजाम यह हुआ है कि एक ओर जहां देश में कल-कारखाने बंद होने की कगार पर पहुँच गए हैं वहीं दूसरी तरफ सही दाम न मिलने के कारण किसानी भी बदहाल है। मंदी का संकट कितना गहरा गया है अब यह सरकारी आँकड़े खुद ही बताने लगे हैं, देश में लोगों के पास कपड़े-लत्ते तो दूर साबुन-तेल खरीदने की भी क्षमता नहीं रह गयी है।

ऐसे में पूंजीपति वर्ग और उसकी पिछलग्गू सरकार की पूरी कोशिश है कि इस मंदी का बोझा ग्रामीण भारत पर डाल दिया जाए। अपने पूंजीपति आकाओं को रिझाने के लिए ही सरकार ने अब प्राकृतिक संपदा लोगों से छीन कर अमीरों की झोली में डालने का काम शुरू किया है। यही कारण है कि वन-जन श्रमजीवी लोगों और पारंपरिक रूप से वन-आश्रित लोगों को बेदखल करने का षड़यंत्र चलाया जा रहा है ताकि बिना किसी विरोध के प्राकृतिक संपदा कंपनियों को कौड़ियों के मोल बेची जा सके। 12 साल बाद भी वन अधिकार क़ानून पूरी तरह से लागू करना तो दूर वन विभाग ने तो उन लोगों से ही दस्तावेज़ों का तकाज़ा शुरू कर दिया है जिनकी संपत्ति पर वे घुसपैठ किए बैठे हैं। सभी कानूनों को धत्ता बताते हुए वन विभाग वनाश्रित परिवारों के घर तोड़ रही है और विरोध करने पर लाठियां बरसा रही है ताकि उन्हें वन क्षेत्र से खदेड़ अपनी मनमानी कर सके। वन विभाग, वन माफिया और वाइल्डलाइफ फर्स्ट सरीखे संस्थानों ने मिलजुल कर एक कथानक गढ़ा है जहाँ तथाकथित संरक्षण के नाम पर वनाश्रित लोगों को जंगल और वहाँ बसने वाले जीव-जानवर का विरोधी बताया जा रहा है। वनाश्रित लोगों पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि उनकी वजह से जंगल ख़तरे में है। असलियत यह है कि वन संरक्षण की आड़ में यह गुट पूंजीपतियों के लिए काम कर रहा है और सरकार इनका साथ दे रही है। यह इसी से साफ़ है कि 2014-2018 के बीच सरकार ने 1,24,788 हेक्टेयर वन भूमि विभिन्न परियोजनाओं के लिए आवंटित कर दी जिसका विरोध वनाश्रित लोगों लगातार किया। साथ ही क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण अधिनियम, 2016 (कैम्पा एक्ट, 2016) के नाम पर जंगलात के विनाश को लाभप्रद बनाने का प्राधिकार वन विभाग को सौंपा गया और लोगों की प्रतिनिधि ग्राम सभाओं की आवाज़ पूरी तरह से दबा दी गई।

केंद्र व राज्य सरकारों ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 को कमज़ोर करने की जंग छेड़ रखी है, ख़ास कर ग्राम सभा में निहित शक्तियों को छीनने और सामुदायिक अधिकारों को नकारने वाले भारतीय वन कानून, 1927 को सशक्त करने की कोशिश जारी है। भाजपा सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भारतीय वन क़ानून, 1927 को संशोधित कर वन विभाग की पैठ बढ़ाने और उसके सैन्यकरण की भी कवायद की थी जिसे भारी विरोध के कारण फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। महाराष्ट्र में ग्रामीण वन नियम, मध्य प्रदेश में संरक्षित वन नियम लागू कर और झारखण्ड में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन कर वनाश्रित लोगों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। एक ऐसी सरकार जिसके सत्ता में होने का आधार सिर्फ धार्मिक उन्माद हो और जिसकी कुनीतियों के कारण आर्थिक मंदी और भारी बेरोज़गारी देश के आगे मुंह बाये खड़ी हों उसे प्राकृतिक संपत्ति का दोहन ही इससे उबरने का सबसे सरल रास्ता जान पड़ता है।

इस परिवेश में यह जरूरी हो गया है कि सभी प्रगतिशील ताक़तें वन संपदा के दोहन के सरकारी मंसूबे की खिलाफत में साथ आयें और वन-जन श्रमजीवी एवं पारंपरिक रूप से वनाश्रित लोगों के अधिकारों की लड़ाई तेज़ करें। भूमि अधिकार आंदोलन की अगुआई में जारी प्राकृतिक संपदा संरक्षण की इस जुझारू लड़ाई में निहित एन.टी.यू.आई संबद्ध अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन और सभी आंदोलनरत साथियों को न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव सलाम करता है और मांग करता है कि:

  • सरकार अविलंब वन अधिकार कानून, 2006 का सिर्फ अक्षरशः नहीं वरन उसमें निहित भाव का सम्पूर्ण क्रियान्वयन सुनिश्चित करे। जमीन के पट्टों के सामुदायिक अधिकार का सम्मान करे और ग्राम सभाओं एवं वन अधिकार कानून पर आघात बंद करे।
  • वाइल्डलाइफ फर्स्ट की वनाश्रित लोगों को उनके पारंपरिक पर्यावास से बेदखल करने की याचिका खारिज की जाए।
  • वनाश्रित परिवारों पर हो रही हिंसा बंद हो और वन क्षेत्र में हो रही बेदख़ली पर अविलंब रोक लगे।
  • वन विभाग पर अंकुश लगे। सरकार का प्रतिनिधित्व जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा हो।

गौतम मोदी
महासचिव