मई दिवस 2022

शिकागो के हेमार्केट में 8 घंटे के कार्यदिवस के लिए शहीद हुए वीरों के संघर्ष और बलिदान के 136 साल बाद, हमारे देश में और दुनिया भर में कई श्रमिकों के लिए सिर्फ 8 घंटे कार्यदिवस अब तक हासिल नहीं किया जा सका है।

मज़दूर वर्ग संघर्ष की हर सफलता के साथ ही पूंजी ने सुधारके नाम पर अपने पैंतरे बदल कर शोषण के नए तरीके इजाद किए एवं श्रम और पूंजी के बीच के शक्ति संतुलन को जैसे का तैसा बनाए रखने के लिए मज़दूर वर्ग पर नए तरीकों से हमले किए।

हम मज़दूर वर्ग और पूंजी के बीच संघर्ष में उस मोड़ पर हैं जहाँ पूंजी ने दुनिया भर में, ऐतिहासिक रूप से, लगभग हर एक देश में, राष्ट्रीय आय के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। पूंजी ने इसे तीन तरीकों से हासिल किया है अर्थव्यवस्था के नियम बदलकर, दुनिया मे उत्पादन के नये तरीके लाकर, पारंपरिक कार्यस्थल से काम खत्म करके और नये तकनीक की मदद से नौकरीदाता और मज़दूर के बीच संबंधों को बदलकर और कानूनी तरीकों से मज़दूर अधिकारों का ख़ात्मा कर। दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों में पूंजी की इस आक्रामकता के कारण श्रमिकों के भीषण शोषण ने चरम दक्षिणपंथी और सत्तावादी शासन को बढ़ावा दिया है।

इस बदलाव का असर हमारे रोजमर्रा के जीवन पर बेरोजगारी के बढ़ते स्तर, गिरती मज़दूरी सभी के लिए असल मज़दूरी में गिरावट, लेकिन कई उनके हाथ आने वाली वास्तविक मज़दूरी तक मे गिरावट देख रहे हैं काम के लंबे घंटे, सामाजिक सुरक्षा लाभ जैसे स्वास्थ्य सुविधाओं और पेंशन का कम होना, साप्ताहिक अवकाश के लिए, आम छुट्टियों और यहां तक कि बीमारी के लिए छुट्टी लेने पर कोई मज़दूरी ना मिलना, असुरक्षित काम और रोज़गार की सुरक्षा ना होने के रूप में दीखता है।

देखा जाये तो यह पूंजीपति वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग बनाम मज़दूर वर्ग के बीच असमता का प्रतीक है असमानता जो आय और सम्पत्ति दोनों में दिखाई देती है, वो शांति से साथ रह रही है। यही असमानता समाज में जहर घोलती है।

कोरोनावायरस ने इस असमानता को और बढ़ा दिया है। अमीर, आराम से घर से काम करते हैं‘, जहाँ उनकी मानवीय सुरक्षा का जिम्मा अग्रिम पंक्ति के मज़दूर – स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सफाई कर्मचारी, नगरपालिका मज़दूर, खाद्य मज़दूर और किसान, परिवहन कर्मचारी, दुकानों पर काम करने वाले व डिलिवरी मज़दूर, दवाओं जैसे ज़रूरी सामान बनाने वाली फैक्टरीयों में काम करने वाले श्रमिक, कपड़े, बिजली उत्पादन और वितरण कर्मचारी के कंधों पर था या उन लोगों पर जो अपने छोटेतंग घरों से काम करने पर मजबूर थे जहाँ उनके बच्चे उसी जगह पर ऑनलाइनशिक्षा के लिए संघर्षरत थे, ख़ास कर उन महिलाओं के लिए नरक बन गए जो और भी लंबे वक्त तक काम करने को मजबूर थीं। मेहनतकश वर्ग का हर मज़दूर इस दोगली आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का शिकार हुआ जिस में अमीरों को महामारी से बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल कर मज़दूरों को संवेदनहीनअसुरक्षित काम करने पड़े।

यह भेद हमारे देश में विभत्स रूप से बेपर्दा हो चूका है। पिछले दो सालों में, लॉकडाउन के दौरान मज़दूरों को काम से निकाल दिया गया था और जब फैक्ट्रियाँ फिर से खुलीं तो उन्हें नए श्रमिकों से बदल दिया गया, महामारी के दौरान जो मज़दूरी मिलती उसका या तो आंशिक भुगतान किया या बिल्कुल भी नहीं, कई मज़दूरों को महामारी से पहले की तुलना में कम मज़दूरी पर काम करना पड़ रहा है, फैक्ट्रियों का खुलना घातक दुर्घटनाओं से भरा रहा है, न्यूनतम मज़दूरी का भुगतान नहीं किया गया है, हफ्ते में 1 दिन आराम या छुट्टी का वेतन कई लोगों के लिए अब पुरानी बात हो गई है, जिन्हें इसका फायदा पहले मिलता था अब उन्हें भी नहीं मिल रहा। मेहनतकश वर्ग के एक आम इंसान के लिए यह कितना बुरा है इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।

इस बीच सरकार ने महामारी की आड़ में श्रम संशोधनके नाम पर चार ‘लेबर कोड’ बनाए हैं । लेबर कोड’ का मतलब है न्यूनतम मज़दूरी से भी कम मज़दूरी को कानूनी मान्यता। काम के घंटों पर कम प्रतिबंध और ओवरटाइम की सीमा पर लचीलापन, अनियमित रोजगार पर कोई रोक नहीं होना और ठेका मज़दूरी के मामले में प्रमुख नौकरीदाता की जिम्मेदारी को कमजोर करना।

लेबर कोड के हमले का असर मज़दूरों के यूनियन की स्वतंत्रता के अधिकार और सामूहिक सौदेबाजी पर हुआ है। कोड ने कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियनों के गठन, उनमें शामिल होने या उन्हें बनाए रखने का काम मुश्किल कर दिया है और हड़तालों पर रोक लगाने सहित औद्योगिक कार्रवाई को भी प्रतिबंधित कर दिया है।

ट्रेड यूनियन अधिकारों मे कानूनी बदलाव देश के अंदर लोकतांत्रिक अधिकारों पर विधायी हमला है। यह साफ़ तौर पर अलग विचार रखने, असहमति दर्ज करने और विरोध के लिए आवाज़ उठाने के लोकतांत्रिक अधिकार पर रोक है। यह कार्यस्थलपर लोकतंत्र और इसके फलस्वरूप आर्थिक लोकतंत्र की सीमा तय करता है । यह श्रमिक अधिकारों बनाम अमीर नौकरीदाताओं को मिलने वाले विशेषाधिकार के मामले में मज़दूर अधिकारों पर अंकुश लगाने की एक कोशिश है।

यह एक ऐसे समाज में जहाँ अमीरों को 100 खू़न माफ है, शासक के अधिकारों के शासित के अधिकारों पर वर्चस्व स्थापित करने और गरीबों को समाज में उनकी औकात बताने की शुरुआत है।

हम जिस असमानता का सामना कर रहे हैं उसके साथ कोई भी समाज शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक बनकर नहीं रह सकता। असमानता की यह स्थिति सिर्फ क्रोध, नफरत और मतभेद को पैदा कर सकती है। पूंजीवाद और चरम दक्षिणपंथी जो इसे बढ़ाते हैं वो ऐसे मतभेद वाले समाज में ही पलते हैं , ऐसा भेद जो मज़दूर वर्ग में फैल जाता है और उसे विभाजित करता है। आज सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में एक विभाजन है, लोगों को समुदाय, धर्म, जाति, नस्ल, क्षेत्र, भाषा, खाने की पसंद, सबसे पुराने विभाजन यानि लिंग, आय और धन के बुनियाद पर विभाजित किया गया है। आर्थिक असमानता क्रोध और नफरत की ओखली में मूसल का काम कर रहा है। पूंजीवाद और कट्टर दक्षिणपंथी एकदूसरे का भरणपोषण करते हैं और साथ में समाज को विभाजित करते हैं क्योंकि वे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में लोकतंत्र को कमजोर करना चाहते हैं।

आर्थिक वर्चस्व की तलाश ने दुनिया में साम्राज्यवादी वर्चस्व पैदा कर दिया है जिसने दुनिया को उत्तर और दक्षिण के बीच और पूर्व और पश्चिम के बीच बाँट दिया है । ये विभाजन अति राष्ट्रवाद और विदेशियों के प्रति द्वेश एवं भय के लिए चारा हैं। हम इस समय इस तरह के युद्धों का सामना कर रहे हैं, जहाँ साम्राज्यवादी ताकतें वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपना वर्चस्व स्थापित करने और मुठ्ठी भर अमीरों के फायदे के लिए मासूम लोगों की बलि चढ़ाने और देशों को बरबाद करने में भी नहीं लजा रहीं। इसने हमारी दुनिया के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। हमारे कार्यस्थल, हमारे परिवार, हमारे समुदाय, हमारा समाज, हमारा देश, हमारी दुनिया क्रोध, घृणा, पितृसत्ता, कट्टरता, और विद्वेष से बँट कर आगे नहीं बढ़ सकती।

एक विभाजित समाज में मेहनतकश वर्ग के हर व्यक्ति के लिए एक सम्मानजनक उचित मज़दूरी जो एक सम्मानित जीवन स्तर प्रदान करे हासिल करना संभव नहीं है। एक ऐसे समाज में जहाँ लोकतंत्र ही न हो वहाँ सामाजिक न्याय कायम नहीं हो सकता। साम्राज्यवादी दुनिया में शांति कायम नहीं हो सकती।

विभाजन के खिलाफ लड़ाई, सत्तावाद के खिलाफ लड़ाई, साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई मज़दूर वर्ग की लड़ाई है और इसलिए ट्रेड यूनियन को इन समस्याओं को संबोधित करने में खुद को निहित करना होगा।

जिस भी जगह पर हम काम करते हैं, उसमें मज़दूरों को एकजुट करने का हमारा संकल्प होना चाहिए, चाहे वह स्थायी श्रमिक हों या ठेका मज़दूर, ब्लू कॉलर हों या व्हाइट कॉलर, कुशल हो या अकुशल मज़दूर, फैक्ट्री में काम करने वाला मज़दूर हो या आफिस में का काम करने वाला, स्थानीय हो या प्रवासी मज़दूर, महिला हो या पुरुष मज़दूर, संपन्न समुदाय का हो या वंचित जाति का मज़दूर, हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई किसी भी धर्म का मज़दूर हो। हमें उन सभी कार्यस्थलों से हर मज़दूर को यूनियन के दायरे में लाना होगा जो अब तक संगठित नहीं हो पाए।

इस तरह संगठित हो कर ट्रेड यूनियन धारा को मोड़ सकती है। इस तरह ट्रेड यूनियन एक बेहतर, न्यायसंगत और समाजवादी दुनिया बना सकती है जो किसी को भी दिन में 8 घंटे और हफ्ते में 6 दिन से ज्यादा काम करने के लिए मजबूर ना करे और फिर भी एक उचित सम्मानजनक मज़दूरी मिले।

मज़दूर एकता ज़िंदाबाद! मज़दूर वर्ग की वैश्विक एकता ज़िंदाबाद!

मई दिवस ज़िंदाबाद! इंकलाब ज़िंदाबाद!