निष्पक्ष, न्यायसंगत और समतामूलक समाज के लिए संघर्ष केवल महिलाओं का संघर्ष नहीं है

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महामारी का प्रकोप जैसेजैसे कम हो रहा है, महिलाओं से ज्यादा राहत पाने वाला शायद ही दूसरा कोई हो। महामारी ने महिलाओं के ख़िलाफ हमले को तेज कर दिया जो साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की छाया में और गहरा गया। इसने न केवल घर पर महिलाओं के लिए जिम्मेदारियों को बढ़ाया, बल्कि उन्हें कार्यस्थल और श्रम बाजार में और भी हाशिए पर धकेल दिया।

महामारी से बचने के लिए आवश्यक सावधानियां और इससे लड़ने के लिए जो देखभाल जरूरी है उसने घर के काम के बोझ को बहुत अधिक बढ़ा दिया। विशेष रूप से स्कूल स्तर पर शिक्षा प्रणाली के लगभग ठप्प हो जाने के कारण स्कूल प्रभावी रूप से घर पर ही आ गया। स्मार्ट डिजिटल उपकरणों और इंटरनेट तक संसाधनों पहुंच की कमी ने समस्या को और बढ़ा दिया। कठोर तालाबंदी जिसमें आसपड़ोस के सार्वजनिक पार्कों और खेल के मैदानों की बंदी ने, चाहे वे जिस किसी भी हाल में मौजूद रहे हों, पहले से ही छोटे श्रमिक वर्ग के घरों को और संकुचित कर दिया। यातायात प्रतिबंध और सार्वजनिक परिवहन की पूर्ण बंदी ने प्रवासी श्रमिकों को मजबूर किया कि वे अपनी जान को जोखिम में डाल, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल शहरों से ग्रामीण भारत स्थित अपने घरों को पहुँचें।

इन सभी प्रतिबंधों के संयुक्त प्रभाव ने ना सिर्फ कोरोनो वायरस बल्कि उससे परे स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को गंभीर रूप से सीमित कर दिया, साथ ही साथ भोजन और आवश्यक सेवाओं सहित बुनियादी जरूरतों तक पहुंच पर भी प्रहार किया।

इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं के रोजगार पर पड़ा है। महामारी से पहले भी, बेरोजगारी का संकट पिछले 45 वर्षों के अपने चरम पर था। इसका खामियाजा ख़ास कर महिलाओं को भुगतना पड़ रहा था क्योंकि बेरोजगार हुए पुरुष भी इन नौकरियों की होड़ में आ शामिल हुए और महिलाओं को श्रम बाज़ार से बाहर धकेल दिया। महामारी ने इस स्थिति को बस बद से बदतर किया। चूंकि प्रवासियों को अपने गांवों में वापस जाने के लिए मजबूर किया गया था, उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों के साथ मनरेगा के तहत मिलने वाले सीमित दिनों के काम के लिए प्रतिस्पर्धा की, जबकि शहरों में महिलाओं ने खुद को कार्यस्थलों पर पुरुषों द्वारा प्रतिस्थापित पाया। पिछले दो वर्षों के दौरान पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक नौकरियाँ खोई हैं, साथ ही मज़दूरी के मामले में लिंगभेद और गहरा गया है।

भारत को अब पूरे उपमहाद्वीप में सबसे कम महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर होने का विशेष गौरव प्राप्त है। इसका मतलब है कि बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, पाकिस्तान और श्रीलंका की तुलना में भारत में कम महिलाएं सक्रिय रोजगार या अन्य लाभकारी आर्थिक गतिविधियों हिस्सेदार हैं।

महामारी के दौरान महिलाओं ने वायरस के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व अग्रिम पंक्ति में किया। आंगनवाड़ी, आशा, एएनएम और नर्सों के रूप में काम करने वाली वे भारी संख्या में महिलाएं ही थीं जो हमारी स्वास्थ्य प्रणाली की रीढ़ बनी रहीं, तिस पर भी पिछले दो वर्षों के दौरान न सिर्फ उन्होंने इस लचर स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का बीड़ा उठाये रखा बल्कि इसी दौरान बेहतर वेतन और सुरक्षित कामकाजी परिस्थितियों के लिए इन्हें लगातार जुझारू संघर्ष भी करना पड़ा। बड़ी संख्या में महिलाओं ने सीमित डिजिटल माध्यमों के बावजूद निढाल हो चली स्कूली व्यवस्था को बचाए रखा। उनमें से अधिकांश ने छोटे घरों से, अपने परिवारों के साथ बंद, अपने स्वयं के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग कर सीमित इंटरनेट उपलब्धता के साथ ऐसा किया। देश भर के कारखानों में, महिलाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया ताकि दवाओं, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण और खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित हो सके ताकि हम महामारी से लड़ सकें।

जितना हम गिन सकते हैं उससे कहीं अधिक महिलाओं ने या जिनके काम को कभी उसका उचित सम्मान मिलेगा उन सभी ने कोविड के खिलाफ लड़ाई अग्रिम पंक्ति में लड़ी है।

महिलाओं का सिर्फ श्रम योगदान ही साये में नहीं रहा है। सभी वर्ग की महिलाओं को घरेलू हिंसा और मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है क्योंकि घरों में बंद पुरुषों ने ख़ुद को अनिश्चितता और असुरक्षा से घिरा पाया और इन स्थिति को अपनी मर्दानगी के लिए एक चुनौती के रूप में देखा!

धार्मिक कट्टरता के प्रति जुझारू समाज, जातिवाद, संकीर्णता और पितृसत्ता और बढ़ती आर्थिक असमानता सभी ने मिलकर एक ऐसा मोर्चा खोल दिया है जो ना सिर्फ पूर्वाग्रह और नफरत के नाम पर समाज का बंटवारा करता है साथ ही इससे महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को भी बल मिला है।

इस्लामी आस्था को मानने वाले परिवारों में किशोरियों को लक्षित कर हिजाब के सवाल पर उन्हें धर्मांध बहुसंख्यक हिंदुत्व की लड़ाई में घसीटा गया। जहाँ एक ओर महिलाओं की स्वायत्तता और चुनाव कर सकने की उनकी आज़ादी पर पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गंभीर हमले किए जा रहे हैं, वहीं बालिकाओं को पूर्वाग्रह और घृणा का पात्र बनाया दिया गया है। महिला के खिलाफ जघन्य यौन अपराधों पर भी कोई नियंत्रण नहीं है क्योंकि इसे हमारे देश में सर्वोच्च निर्वाचित पदों पर बैठे लोगों का मौन समर्थन प्राप्त है।

जैसे यहां भारत में, वैसे ही दुनिया भर में महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए घर पर, समाज में, कार्यस्थल पर और राजनैतिक क्षेत्र में अपने दम पर लड़ाई लड़ी है। यह सिर्फ महिलाओं की लड़ाई नहीं है। निष्पक्ष, न्यायसंगत और समतामूलक समाज के लिए संघर्ष केवल महिलाओं का संघर्ष नहीं है। यह पुरुषों और महिलाओं दोनों का संघर्ष है। न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव में हमेशा से हमारी यही सोच रही है।

इस अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हम एक न्यायसंगत और सभ्य समाज की परिकल्पना में महिलाओं और पुरुषों द्वारा एकजुट संघर्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को एक बार फिर दोहराते हैं। इस संयुक्त संघर्ष के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।